21. श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप_प्रश्नोत्तरी श्रृंखला_5.07–5.15

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अब तक श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे, तीसरे व चौथे अध्याय में हमने पढ़ा कि हमें द्वन्द्वातीत होना चाहिए, अर्थात् प्रत्येक द्वन्द्व में बिना विचलित हुए सम्भाव होकर कर्म करना चाहिए । श्लोक संख्या 5.7 में श्रील प्रभुपाद जी ने अविचलित भाव या समभाव को विकसित करने की प्रक्रिया का वर्णन किया है । अतः निम्नलिखित में से इस प्रक्रिया को पहचानें ।

कृष्णभावनाभावित कर्म - चेतना का शुद्धिकरण - मन का नियंत्रण - इंद्रियों का संयमन - मन कृष्ण में स्थिर = अविचलित भाव ।

कृष्णभावनाभावित कर्म - चेतना का शुद्धिकरण - बुद्धि का प्रक्षेपण - इंद्रियों का संयमन - बुद्धि का कृष्ण में स्थिर होना = अविचलित भाव ।

कृष्णभावनाभावित कर्म - चेतना का स्पष्टीकरण - मन का नियंत्रण - इंद्रियों का संयमन - बुद्धि कृष्ण में स्थिर = अविचलित भाव ।

कृष्णभावनाभावित कर्म - चेतना का शुद्धिकरण - मन का नियंत्रण - इंद्रियों का संयमन - मन चेतना में स्थिर = अविचलित भाव ।

6.

MULTIPLE CHOICE QUESTION

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निम्नलिखित में से संयमित इंद्रियों वाले (अर्थात् कृष्णभावनाभावित) व्यक्ति के क्या लक्षण होते हैं ?

कृष्ण कथा के अतिरिक्त कुछ न सुनना ।

कृष्ण को अर्पित किए हुए भोजन के उच्छिष्ट को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करना ।

कृष्ण से संबंधित स्थलों के अतिरिक्त अन्य स्थानों का भ्रमण न करना ।

यह सभी लक्षण संयमित इंद्रियों वाले कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के होते हैं ।

7.

MULTIPLE CHOICE QUESTION

2 mins • 1 pt

इनमें से सर्वप्रिय व्यक्ति का क्या लक्षण नहीं होता है ?

वह भक्त्याभाव से कर्म करता है ।

वह विशुद्ध आत्मा होता है अर्थात् उसकी चेतना शुद्ध होती है ।

उसका मन तथा इंद्रियाँ उसके वश में होती हैं ।

यह सभी लक्षण सर्वप्रिय व्यक्ति के होते हैं ।

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